Ishwar ne Bhagwan kaise bnaya
ईश्वर कौन हैं और उनका कार्य क्या है?
ईश्वर शिव ज्योति निराकार: ईश्वर को प्रकाश भी कहा जाता है प्रकाश मतलब नूर, ईश्वर को निराकार ज्योति बिंदु शिव परमात्मा कहा जाता है शिव का मतलब होता है कल्याणकारी परमात्मा सभी आत्माओं के लिए कल्याणकारी है वह सबको जीवन मुक्ति और मुक्ति की वरदान देते हैं और उनका सबसे जरूरी काम है पुरानी दुनिया यानी कि कलयुग जब आत्माएं दुखी और अशांत हो जाती है तो उन्हें इस दुख की दुनिया से निकलकर सुख की दुनिया में ले जाने वाले सतयुग की स्थापना करने वाले परमात्मा ही है परमात्मा मनुष्य आत्माओं की तरह जीवन मृत्यु के चक्कर में नहीं आते अर्थात वह शरीर नहीं लेते केवल जब कलयुग की आती हो जाती है तो उनका दिव्या जन्म होता है, वह माता के गर्भ में नहीं आते बल्कि एक साधारण तन लेकर मनुष्य को देवता बनाने की पढ़ाई करवाते हैं जिससे कि वह इस लायक बन जाए की पवित्र दुनिया को बना सके और पवित्रता को धारण करके इसमें रहने लायक बन सके। आशा है कि आप समझ गएहोंगे कि परमात्मा ही जन्म मरण के चक्कर में नहीं आता और सदा ही एवर पूरे है इसलिए उसे सदाशिव भी कहते हैं जैसे कि इस सृष्टि का नियम है की हर चीज नई से पुरानी होनी ही है इस तरीके से जब आत्मा इस दुनिया में आती है तो बिल्कुल नयी होती है, लेकिन अपना पाठ बजते बजते हैं वह पुरानी हो जाती है यानी की तमोप्रधान हो जाती है, हर एक आत्मा सतोप्रधान से तमोप्रधान बनती जाती है, और प्रकृति पुरुष यानी आत्मा को फॉलो करती है तो जब आत्मा पुरानी हो जाती है तो प्रकृति भी दुख देने वाली हो जाती है जिसके कारण भूकंप,आंधी,बाढ़,तूफान प्रकृति की तरफ देखने को मिल जाता है तो परमात्मा जो कि कभी भी पुराने नहीं होते वह हमेशा ही सुंदर ही रहते हैं इसलिए कहते हैं सत्यम शिवम सुंदरम क्योंकि वह हमेशा सच्चा और सुंदर ही रहता है वह जाकर आत्माओं को नया बनता है और आत्मा के नया बनने से प्रकृति भी नहीं यानी सतयुग की हो जाती है यह परमात्मा का मुख्य कार्य है तो आप समझ गए होंगे कि परमात्मा एक है और उसका मुख्य कार्य है मनुष्य को पतित से पावन बनाना।
मुख्य बिंदु:परमात्मा एक शिव निराकार सभी परमात्माओं के लिए कल्याण कार्य वह बस एक बार सतयुग और कलयुग के मध्य संगम युग पर आते हैं और मनुष्य को देवता बनकर नए युग सतयुग जिसे हम स्वर्ग भी कहते हैं इसकी स्थापना करते हैं और सभी मनुष्य आत्माओं को मुक्ति जीवन मुक्ति का वर्षा देते हैं।
भगवान बनने के लिए आत्मा का चयन कैसे होता है?
कर्मों के आधार पर होती है देव आत्माओं का चयन: आपने तो यह सुनी रखा होगा कि यह दुनिया एक कर्मभूमि है अर्थात जो जैसा करेगा वैसा ही फल पाएगा जो नहीं करेगा वह नहीं पाएगा इसीलिए हर एक आत्मा अपने कर्मों के लिए तो स्वतंत्र है पर उसे भोगने के लिए वह स्वतंत्र नहीं अर्थात उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है, तो जब परमात्मा इस धरा पर आते हैं तो उन्हें सतयुग की स्थापना करनी होती है और कलयुग का विनाश करना होता है सतयुग में बहुत थोड़े ही मनुष्य होते हैं जो की सभी मनुष्य जाति के पूर्वज होते हैं सतयुग में सभी आत्माएं पवित्र होती है और उन्हें बहुत ही सुख मिलता है वह तन,मन धन और संबंध संपर्क और प्रकृति का अर्थात सुख पाते हैं इसके अलावा परमात्मा को सद्गुरु के रूप में प्राप्त करने के लिए आत्मा के पास पुण्य की पूंजी जमा होनी चाहिए, जो आत्माएं परमात्मा की सच्ची भक्ति करती है उसे ही भक्ति का फल ज्ञान मिलता है और इसी द्वारा उनका चयन होता है जो जितना ज्यादा भक्ति करती है उसे उतना ही ज्यादा ज्ञान और सतयुग यानी स्वर्ग का सुख मिलता है इसके अलावा परमात्मा द्वारा किए जाने वाली पढ़ाई को आत्मा कितने अच्छे से पढ़ती है इस हिसाब से उसे सतयुग में पद मिलता है लेकिन हर एक आत्मा को स्वर्ग में सुख जरूर मिलता है क्योंकि उसे कहा ही जाता है सुखधाम।
मुख्य बिंदु:सतयुग में देव आत्माओं का चयन उनके पुण्य के पूंजी के अनुसार होता है, इसके अलावा कितनी अच्छे से पढ़ाई करती है उसे हिसाब से उन्हें सतयुग में अपना पद मिलता है ।
राजयोग द्वारा ईश्वर और आत्मा का मिलन
राजयोग, जिसका अर्थ है “राजाओं का योग” या “श्रेष्ठ योग,” आत्मा और परमात्मा के मिलन की सबसे ऊँची विधि है। यह कोई शारीरिक अभ्यास नहीं, बल्कि एक गहन मानसिक और आत्मिक यात्रा है, जिसमें आत्मा अपनी सच्ची पहचान को जानकर परमात्मा से संबंध जोड़ती है।
जब आत्मा “मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ” का बोध करती है, तब वह आत्मिक स्थिति में स्थिर हो जाती है। इस स्थिति में आत्मा, परमात्मा शिव से जुड़ सकती है, जो परम शांति, ज्ञान और प्रेम का स्रोत हैं। यह जुड़ाव ही राजयोग कहलाता है।
राजयोग में न कोई मंत्र की आवश्यकता होती है, न विशेष आसन की। यह एक स्मृति योग है – याद का योग – जिसमें आत्मा मन और बुद्धि के द्वारा परमात्मा को याद करती है। यह याद आत्मा को उसकी खोई हुई शक्तियाँ लौटाती है और उसे पवित्र बनाती है।
मुख्य संदेश: राजयोग कोई कल्पना नहीं, बल्कि एक अनुभव है – जहाँ आत्मा और परमात्मा प्रेम के बंधन में बंधते हैं। यही सच्चा मिलन है, जिससे जीवन दिव्य और शक्तिशाली बन जाता है।
परमात्मा द्वारा आत्मा को भगवान में बदलने की प्रक्रिया
देवताओं को भी भगवती भगवान कहते हैं आखिर क्यों: परमात्मा शिव स्वयं कहते हैं — "मैं तुम आत्माओं को फिर से देवता अर्थात भगवान स्वरूप बनाता हूँ।" यह कोई चमत्कार नहीं, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जिसमें आत्मा अपनी मूल स्थिति को पुनः प्राप्त करती है।
आत्म-बोध की यात्रा:
पहला कदम है — आत्मा को उसकी सच्ची पहचान का बोध कराना। आत्मा जब जान जाती है कि वह नाशवान शरीर नहीं, बल्कि शुद्ध, चैतन्य सत्ता है — तब परिवर्तन का द्वार खुलता है। परमात्मा हमें "आत्मा" की याद दिलाकर देह-अभिमान से मुक्त करते हैं।स्मृति का जागरण:
परमात्मा शिव हमें यह स्मृति दिलाते हैं कि हम सतोप्रधान आत्माएँ थे — देवता रूप में स्वर्ग में रहते थे। यह स्मृति हमें प्रेरित करती है कि हम फिर से वही पवित्रता, शक्ति और श्रेष्ठता धारण करें।राजयोग – स्मृति और संबंध का योग:
राजयोग के माध्यम से आत्मा परमात्मा से संबंध जोड़ती है। यह संबंध आत्मा को दिव्य गुणों से भर देता है। जैसे सूर्य की किरणें अंधकार को हटाती हैं, वैसे ही परमात्मा की याद आत्मा के भीतर के अज्ञान, विकार और दुर्बलता को मिटा देती है।विकारों की समाप्ति और पुनः पवित्रता की स्थापना:
जब आत्मा परमात्मा से योग लगाती है, तब उसमें छिपी बुराइयाँ जलने लगती हैं — इसे ही "विकर्म विनाश" कहा जाता है। धीरे-धीरे आत्मा फिर से सात्विक, शांत, प्रेममय, करुणामयी बन जाती है।दिव्यता का पुनरागमन – आत्मा बनती है भगवान तुल्य:
जब आत्मा पूर्ण पावन बन जाती है, उसमें दिव्य गुण, शक्तियाँ और श्रेष्ठ कर्म स्वाभाविक हो जाते हैं। यही स्थिति उसे देवता बनाती है। देवता मतलब — दाता, जो सदा देता है। इस अवस्था में आत्मा भगवान समान पूजनीय बन जाती है।
निष्कर्ष:
परमात्मा आत्मा को भगवान में नहीं बदलते, बल्कि उसे उसकी मूल देवत्व की स्थिति में पुनः स्थापित करते हैं। यह परिवर्तन ज्ञान, योग और धारणा के मार्ग से होता है — धीरे-धीरे, लेकिन स्थायी रूप से।
मुख्य बिंदु: परमात्मा शिव आत्मा को उसकी सच्ची पहचान दिलाते हैं कि वह नश्वर शरीर नहीं, बल्कि शाश्वत, चैतन्य आत्मा है। आत्म-बोध से आत्मा परमात्मा से योग लगाकर पवित्रता धारण करती है। जब आत्मा परम ज्ञान, योग और सत्कर्मों के द्वारा अपने विकर्मों से मुक्त हो जाती है, तब उसमें दिव्यता और देवत्व जाग जाता है। यही प्रक्रिया आत्मा को भगवान समान बना देती है — शांत, प्रेममय, दाता और पूजनीय।
क्या हम भी भगवान बन सकते हैं?
हाँ, हम भगवान "समान" बन सकते हैं, भगवान नहीं।: परमात्मा एक ही हैं — निराकार शिव, जो सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञानी और सदा अविनाशी हैं। हम आत्माएँ उनके अंश नहीं, बल्कि स्वतंत्र शक्तियाँ हैं जो जन्म और मरण के चक्र में आती हैं। लेकिन जब हम परमात्मा से ज्ञान और योग द्वारा जुड़ते हैं, तब हम भगवान समान बन सकते हैं — यानी पवित्र, शक्तिशाली, दयालु, प्रेममय, और पूजनीय। यही स्थिति देवता कहलाती है।
मुख्य बिंदु: हम भगवान नहीं बन सकते, पर उनके जैसा बनकर स्वर्ग की स्थापना में सहयोगी अवश्य बन सकते हैं।